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तिब्बत में बौद्ध धर्म

राहुल सांकृत्यायन

प्रकाशक : किताब महल प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :72
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 16708
आईएसबीएन :9788122503258

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प्रकाशकीय

हिन्दी साहित्य में महापंडित राहुल सांकृत्यायन का नाम इतिहास प्रसिद्ध और अमर विभूतियों में गिना जाता है। इनका पितृग्राम कनैला तथा ननिहाल पन्दहा ग्राम है। यह दोनों ग्राम आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) जनपद में आते हैं। इनके पूर्वज सरयूपार गोरखपुर जनपद के मलांव के पाण्डेय थे जो कभी आजमगढ़ के इस अंचल में आ बसे थे। स्वशिक्षित राहुल नियमित पाठशाला पाठ्यक्रम को तिलांजलि देकर संस्कृत से अरबी, फ़ारसी से अंग्रेजी, सिंहली से तिब्बती भाषाओं में भ्रमण करते रहे। उनमें अद्भुत ग्रहण शक्ति थी जिससे उन्होंने इन भाषाओं के ज्ञान भण्डार से घिसी पिटी बातों को छोड़कर उनकी मेधावी प्रज्ञा के सबसे जटिल सार तत्त्वों का मधु संचय निचोड़ निकाला।

बौद्ध धर्म से तो इतना प्रभावित हुये कि स्वयं बौद्ध हो गये। अपने वास्तविक नाम केदारनाथ पाण्डे तक को बदलकर राहुल नाम रखा। ‘सांकृत्य’ गोत्रीय होने के कारण उन्हें राहुल सांकृत्यायन कहा जाने लगा। उनका समूचा जीवन घुमक्कड़ी का था। घुमक्कड़ जीवन के मूल में अध्ययन की प्रवृत्ति ही सरवोपरि रही। राहुल जी के साहित्यिक जीवन की शुरुआत सन्‌ १९२७ ई० से हुई तथा उनकी लेखनी उनके जीवन तक (अप्रैल १९६३) चलती रही। अब तक उनके १३० से भी अधिक ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। लेखों, निबन्धों एवं भाषणों की गणना एक मुश्किल काम है।

राहुल जी के साहित्य के विविध पक्षों को देखने से ज्ञात होता है कि उनकी पैठ न केवल प्राचीन-नवीन भारतीय साहित्य में थी। अपितु तिब्बती, सिंहली, अंग्रेज़ी, चीनी, रुसी, जापानी आदि भाषाओं की जानकारी करते हुए तत्तत्‌ साहित्य को भी उन्होंने मथ डाला।

बौद्ध दर्शन के वे मान्य विद्वान्‌ और व्याख्याता थे-त्रिपिटकाचार्य। उनकी अन्य सभी बातों को यदि हम अलग कर दें तो हम यह पाते हैं कि तिब्बत से प्राचीन ग्रंथों की जो थाती राहुल जी भारत ले आये वे ही उनको अमरता प्रदान करने के लिये पर्याप्त है।

बौद्ध धर्म के मानने वाले उन्हें गौतम बुद्ध का अवतार मानते हैं। प्रो० सिल्वा लेवी ने उनकी गणना बौद्धधर्म के सर्वश्रेष्ठ विद्वानों में की है तथा उन्हें चौदह आदर्शो का प्रतिनिधि माना है। उन्हें देशी-विदेशी ३६ भाषाओं का ज्ञान था।

वर्ष १९२९ में बौद्ध धर्म ग्रंथों की खोज में वे नेपाल होते हुये तिब्बत गये जहाँ भीषण कष्टों एवं बाधाओं को सहते हुये भी अनेक दुर्लभ बौद्ध ग्रंथों की खोज की।

वर्ष १९३४ में दूसरी बार, वर्ष १९३६ में तीसरी बार तथा वर्ष १९३८ में चौथी बार उन्हें तिब्बत जाना पड़ा। धर्मशास्त्र पर लिखित उनकी आठ प्रमुख रचनावलियों में से एक प्रमुख रचनावली ‘तिब्बत में बौद्ध धर्म’ है जो उन्होंने वर्ष १९३५ में लिखा।

अपनी मूल्यवत्ता और शोध की सरल एवं मनोरम शैली के कारण यह पुस्तक विद्वानों में अत्यंत सराही और ग्राह्म की गई।

प्रस्तुत पुस्तक “तिब्बत में बौद्ध धर्म” राहुल जी की अलभ्य ब पांडित्यपूर्ण कृतियों में से एक है। जिसे उन्होंने पाँच विभिन्‍न काल खंडों में ६४० ई० से १६६४ ई० तक क्रमश: लिपिबद्ध किया है जिसका वर्गीकरण इस प्रकार है –

१. आरंभ युग (६४०-८२३ ई०)

२. शांतरक्षित युग (८२३-१०४२ ई०)

३. दीपंकर युग (१०४२-११०२ ई०)

४. स-स्क्‍्य युग (११०२-१३७६ ई०)

५. चोङ्-ख-प-युग (१३७६-१६६४ ई०)

६. अंतिम युग (१६६४ ई०)

विद्वान्‌ लेखक ने इस पुस्तक में उन-विशेष कारणों पर प्रकाश डाला है जिनके फलस्वरूप बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार तिब्बत में ६४० ई० से पूर्व मंदगति से हुआ जबकि यह धर्म तीसरी शताब्दी से ही पहले भारत की सीमा से बाहर फैलने लगा था तथा ६४० ई० तथा उसके बाद के वर्षों में इस धर्म को किन महानुभावों ने इसे प्रतिस्थापित तथा सम्मानित किया।

इस पुस्तक में तिब्बत में बौद्ध धर्म के उन्‍नयन के साथ-साथ उन ऐतिहासिक व राजनैतिक घटना क्रमों का भी सविस्तार वर्णन किया गया है तथा तिब्बत देश की विस्तृत जानकारी भी दी गई है। विभिन्‍न घटनाक्रमों में संवहित करके पाठकों को अपने साथ बाँधे रखने का प्रयास अलभ्य और अनूठा है तथा उन्हें “तिब्बत में बौद्ध धर्म” के विषय में संपूर्ण जानकारी दी गई है।

यह पुस्तक राहुल जी की अमर कृतियों में से एक है।

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